बड़े मुद्दों के बजाय जातिवाद के समीकरण और सत्ता का प्रभाव हावी रहा।

6 जिलों की 78 पंचायत समितियों के 1564 वार्डो में से कांग्रेस 894 और भाजपा 1013 वार्डो में हारी, लेकिन फिर भी जीत के दावे। इस हार से दोनों दलों को सबक लेने की जरूरत।
बड़े मुद्दों के बजाय जातिवाद के समीकरण और सत्ता का प्रभाव हावी रहा।
कांग्रेस को 26 पंचायती समितियों में बहुमत मिला है, लेकिन सत्ता के प्रभाव में 50 से भी ज्यादा में कांग्रेस के प्रधान बनेगें।
6 सितम्बर को जिला प्रमुख और प्रधान पद के चुनाव होंगे, तब तक विजयी प्रत्याशी होटलों और रेसोर्ट् में बंद रहेंगें।
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राजस्थान के 6 जिलों की 78 पंचायत समितियों के 1564 वार्डो के परिणाम घोषित हुए तो मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष सतीश पूनीया ने अपनी अपनी पार्टी की जीत के दावे किये। जबकी हकीकत में देखा जाये तो 1564 वाडों में से सत्तारूढ़ कांग्रेस को 894 और प्रमुख विपक्षी भाजपा 1013 वार्डो में हार का सामना करना पड़ा है। लेकिन इसके बाद भी दोनो ही दल जीत का दावा कर रहे है। अच्छा हो की दोनो दल अपनी अपनी हार का आत्म विश्लेषण करें। प्रचार के दौरान कांग्रेस की ओर से कहा गया कि कृषि कानूनों को लेकर किसानों में गुस्सा हैं। महंगाई, तेल मूल्य वृद्धि को लेकर भी मतदाता परेशान है। कांग्रेस इन मुद्दों को उठाने के साथ साथ राज्य सरकार की सारी ताकत झोंक दी। 6 जिलों से 7 मंत्री जुडे हुए थे। ये मंत्री सारा कामकाज छोड अपने अपने विधानसभा क्षेत्र की पंचायत समितियों में जाकर बैठ गए। मंत्रियों ने कोरोना काल में सरकार की उपलब्धियां भी गिनाई। पंचायत समितियों के चुनाव के दौरान ही मुख्यमंत्री गहलोत की एंजियोप्लास्टी भी हुई। अस्पताल के चित्र भी अखबारों में छपे। आम तौर पर माना जाता है कि स्थानीय निकाय और पंचायत के चुनाव में राज्य में सत्तारूढ़ पार्टी को ही फायदा मिलता है, लेकिन इतना सब कुछ होने के बाद भी 1564 वार्डो में से 894 वार्डों में कांग्रेस की हार बताती है की कांग्रेस के लिए अनुकूल स्थिति नहीं है। कांग्रेस को 78 पंचायत समितियों में से 26 में बहुमत मिला है। यह बात अलग है की सत्ता के प्रभाव से कांग्रेस अब 50 से भी ज्यादा पंचायत समितियों में प्रधान चुनवा लेगी। 38 पंचायत समितियों में किसी भी दल को बहुमत नहीं मिला है। इन 38 पंचायत समितियों में प्रधान पद की चाबी निर्दलीयों के पास है। निर्दलीयों को पटाने में कांग्रेस एक्सपर्ट है राजस्थान में 13 निर्दलीय विधायक है और ये सभी गहलोत सरकार को समर्थन दे रहे है और अब मुख्यमंत्री सहित 7 मंत्रियों की ताकत लगी हुई हो तो निर्दलीय सदस्य भाजपा मंे कैसे जा सकते है? 6 जिलों के चुनाव भाजपा के लिए भी सबक है क्योंकि 1564 मे से 1013 में भाजपा की हार हुई है प्रचार के दौरान भाजपा ने जहां कांग्रेस सरकार की तमाम खामिया बताई, वहीं केंद्र सरकार की उपलब्धियां भी गिनाई। कश्मीर से अनुच्छेद 370 को हटाने और अयोध्या में राम मंदिर बनवाने के विषय भी रखे, लेकिन इसके बार भी भाजपा ग्रामीण मतदाताओं के वोट हासिल नहीं कर सकी। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष सतीश पूनिया आमेर से विधायक है, लेकिन आमेर पंचायत समिति में भी भाजपा को बहुमत नहीं मिल सका है। यहां के 23 वार्डो मे 11 में ही भाजपा के उम्मीदवार जीते है। 11 में कांग्रेस के उम्मीदवारों की जीत हुई हैं अब एक निर्दलीय उम्मीदवार के हाथ में प्रधान पद की चाबी है।
जातिवाद हावी:-
इसमें कोई भी दोराय नहीं कि इन चुनावों को जीतने के लिए भाजपा और कांग्रेस ने कोई कसर नहीं छोड़ी, लेकिन परिणामों का अध्ययन किया जाये तो पता चलता है कि राजनीतिक मुद्दों पर जातिवाद हावी रहा है। जातिवाद के कारण ही 1564 में से 290 वार्डो में निर्दलीयों की जीत हुई है। यानी इन 290 वार्डो में निर्दलीय उम्मीदवारों ने कांग्रेस और भाजपा को हरा दिया। ऐसे अधिकांश निर्दलीय उम्मीदवार अपनी जाति के मतदाताओं के दम पर ही जीते है। ऐसी ही जीत सांसद हनुमान बेनीवाल की आरएलपी के 40 उम्मीदवारों की हुई है। बेनीवाल ने 40 उम्मीदवार जीत कर कांग्रेस और भाजपा दोनों के सामने चुनौती प्रस्तुत की है।
जिला परिषद के वार्डो में भी कडा मुकाबला:-
6 जिलों की जिला परिषद के 200 वार्डों में भी भाजपा और कांग्रेस के बीच कड़ा मुकाबला रहा। कांग्रेस को जहां 99 वार्डों में जीत मिली वही भाजपा 90 वार्डो में जीती हैं। कहा जा रहा था कि अशोक गहलोत के नेतृत्व में राजस्थान में कांग्रेस के पक्ष में एक तरफा माहौल है वही भाजपा को बिखरी हुई पार्टी बताया गया, लेकिन जिला परिषद के 200 वार्डों के परिणाम बताते है कि कांग्रेस के पक्ष में एक तरफा माहौल नहीं है। यह सही है कि 6 में से 4 जिला परिषद में कांग्रेस के जिला प्रमुख बनना तय है।