भगवान गौतम बुद्व की जयन्ती बुद्व पूर्णिमा पर विशेष

भगवान गौतम बुद्व की जयन्ती बुद्व पूर्णिमा पर विशेष

भगवान गौतम बुद्व की जयन्ती बुद्व पूर्णिमा पर विशेष
सवाई माधोपुर 23 मई। वैशाख महिनें की पूर्णिमा जिसको सभी पीपल पुर्णिमा और बुद्व पूर्णिमा के नाम से जानते है। इस दिन शाक्य कुल में जन्में भारतवर्ष में करूणा और मैत्री का संदेश देने वाले व समाज में समता, बंधुता व ज्ञान विज्ञान का दीप जलानें वाले विश्व जिन्हे उपाधि के तौर पर लाइट ऑफ एशिया कहकर भी जानता है। वर्तमान में विश्व के लगभग 167 देशों में जिनके अनुयायी है ऐसे सम्यक संबुध तथागत महात्मा गौतम बुद्व का जन्म आज से लगभग 2588 वर्ष पूर्व नंदनवन के लंबिनी नामक स्थान पर शाक्य संवत 68 सन 567 ई पूर्व हुआ था।
इनके पिता का नाम राजा शुद्वोधन शाक्य था जो शाक्य वंशज गणराज्य के राजा थो जिसकी राजधानी कपिल वस्तु थी। इनकी माता का नाम महामाया था जो कोलिय वंशिय थी। इनके पिता राजा अंजन जो कोली गणराज्य जिसकी राजधानी देवदेह थी के राजा थे। गौतम बुद्व के बचपन का नाम सिद्वार्थ था। गौतम इनका गौत्र था इसलिए इन्हे सिद्वार्थ गौतम भी कहते है। इनकी मॉं सिद्वार्थ को सात दिन का छोडकर स्वर्ग सिधार गई। इनका पालन-पोषण इनकी मौसी प्रजापति नें किया। इनके जन्म होने के बाद भविष्य विचारनें वालों नें कहा कि यह बालक घर पर रहा तो चक्रवती सम्राट बनेगा और यदि गृह त्यागी हुआ तो पूर्व योगी संत बनेगा। यह सुनकर राजा शुद्वोधन को चिंता हुई कि यह बालक कही गृह त्यागी न बन जाए क्योकि राजा शुद्वोधन चाहता था कि मेरा बेटा मेरे बाद राज सिंहासन पर बैठकर राज करें। इसी बीच राजा नें सिद्वार्थ को विधा अध्ययन के लिए विश्वमित्र नाम के ब्राहम्मण के पास भेज दिया। इधर महलों में राजा नें सारी सुख-सुविधाएं एवं आमोद-प्रमोद के सारें साधन बालक सिद्वार्थ के लिए उपलब्ध करा दिए और यह पाबंदी भी लगा दी कि यह बालक घर से बाहर ना जाए, जिससे बाहर का दृश्य इसे दिखाई ही नादे। इतनी पाबन्दी होने के बाद भी एक दिन सिद्वार्थ गौतम नें महल के बाहर एक जीर्ण-शीर्ण जराग्रस्त आदमी को देखा और पूछा कि ये आदमी ऐसा कैसे हो गया तो सिद्वार्थ गौतम को समझाया कि जीवन के आखिरी पड़ाव पर सभी के साथ ऐसा ही होता है और अंत में दुखी होकर मर जाता है बस उसी दिन से गौतम के हदड्ढ्य में विशेष परिवर्तन हुआ मानों उनके लिए सांसरिक चीजों में सुख और अनुराग पानें का दीपक ही बुझ गया। इसलिए राजा शुद्वोधन नें सिद्वार्थ गौतम का विवाह 19 वर्ष कि अवस्था में कोलिय वंशिय नरेश दण्डपाणि की सुलक्षणा कुमारी यशोधरा के साथ कर दिया। अपनें विवाह जीवन में गौतम बडे संयम से रहे। विवाह के दस वर्ष बाद उनके एक पुत्र पैदा हुआ जिसका नाम राहुल रखा। सिद्वार्थ गौतम के पुत्र पैदा होने के बाद उनके मन में एक विचार आया कि अब तक तो गृह त्याग में मॉं-बाप और पत्नि ही बाधा बनें हुए थे, अब पुत्र मोह भी बाधा बन जाएगा। सिद्वार्थ गौतम अपनें पुत्र को मात्र सात दिन का छोड़कर शाक्य संवत 97 आषाढ़ पूर्णिमा के दिन अर्धरात्रि के समय सारथी छंदक के साथ कंठक घोडे पर बैठकर पत्नि को सोता हुआ छोड़कर गृह त्याग कर दिया। इस समय उनकी उम्र 29 वर्ष थी और अपनी राज्य की सीमा के बाद अनोमा नदी के किनारें पहुचकर सारथी को कहा कि अब आप वापस घर चले जाओ और माता-पिता को हमारा समाचार सुना देना। वही पर सिद्वार्थ गौतम नें तलवार से अपनें लंबे केश काट डाले और राजसी वस्त्र उतारकर गेरूए रंग की कथरी पहन ली। वहां से ये गंगा किनारें पहुंचे पास ही एक ब्रहम्मचर्य आश्रम में अन्य छात्रों के साथ ज्ञान प्राप्त किया पर गौतम की प्यास नही बुझी। वहां से दुसरें विद्वान रूद्रक के पास पहुंचे जहां पहले से ही उनके 5 शिष्य ज्ञान प्राप्त कर रहे थे। वे 5 शिष्य भी गौतम के साथ चल दिए और भिक्षा मांगते हुए गया पहुंचे गया शहर के बाहर निरंजना नदी किनारें एक सुरम्य आश्रम में गौतम तपस्या करनें लग गए। उन्होनें छ वर्ष तक घोर तप किया किसी दिन केवल पानी पीकर तो किसी दिन एक चावल खाकर तप करते-करते शरीर सूखकर मात्र पिंजर रह गया। परन्तु जो शांति चाहते थे वो नही मिली तभी आकाश से आकाशवाणी हुई कि वीणा के तारू को इतना मत खींचो की तार ही टूट जाए और इतना ढ़ीला भी मत छोड़ो कि आवाज ही नही निकले इसके बाद उन्होने शरीर सुखानें का विचार त्यागकर भोजन लेना शुरू कर दिया। इस पर कोंदिल आदि उनके पांच ब्राहम्मण साथी यह समझकर कि गौतम अपनें तप से डिग गए। उन्हे अकेला छोडकर चले आए।
फिर वही वैशाखा की पूर्णिमा शाक्य संवत 103 बुधवार का दिन था। गौतम एक वृक्ष के नीचे बैठे इतनें में सुजाता नाम की एक क्षत्रिय बाला खीर की पत्तल लेकर उस वृक्ष के नीचे पूजा करनें के लिए आयी और गौतम को कोई देव समझकर वह खीर उन्हे दी गौतम उसे लेकर निरंजना नदी में शुद्व होकर जमीन पर घास बिछाकर उस पर बैठकर खीर खाई और पीपल के पेड़ के नीचे पदमासन लगाकर बैठ गए। साथ ही विचार करनें लगे की घर छोडा, बार छोडा कठिन तप किया पर चित्त को शान्ति नही मिली ना जानें सत्य का मार्ग किधर है। वे इन्ही विचारों में डूब गए। इसी समाधि अवस्था में उनके भीतर ज्ञान का प्रकाश हुआ मानों संसार मगन होकर बुद्व के चरणों में गिर गया। भगवान बुद्व सात दिन तक उसी निच्चल अवस्था में लीन अनंत आनंद में मगन बैठें रहे। आठवें दिन उठे और जलपान किया फिर बुद्व को विचार आया कि उनका ज्ञान लोगों को कैसे समझ में आएगा। तो सबसे पहलें अपनें दो गुरूओं को ढूंढ़ते हुए काशी के निकट सारनाथ में आए वहां पांचों सन्यासी साथी मिल गए। सर्व प्रथम बुद्व नें इन्ही साथियों को सारनाथ में उपदेश दिया। इस प्रथम उपदेश का नाम धर्म चक्र प्रवर्तन सूत्र है इस प्रकार लगभग 60 भिक्षुओं का संघ बनाकर बोद्व चक्र का उपदेश देने के लिए भिन्न-भिन्न स्थानों में भेजा और कहा कि विशुद्व धर्म के मार्ग का उपदेश करो। वे स्वंय भी अपनें जीवन के शेष 45 वर्ष तक सर्वत्र उपदेश देते और लोगों को संघ में दीक्षित करते रहे, मगध, कौशल, कौशांबी, शाक्य कोलिय, लिक्षवी आदि राज्यों में उनका विशेष मान था।
गौतम बुद्व के उपदेशों में मुख्यत पंचशील अर्थात 5 आज्ञाएं, जो गृहस्थ और भिक्षु सबके लिए है। अहिंसा अस्तेय सत्य ब्रहम्मचर्य नशीली चीजो का त्याग। त्रिरत्न (1) बुद्वम शरणम् गच्छामि (2) धम्मम शरणम् गच्छामि (3) संघम शरणम् गच्छामि। बोद्व साहित्य तीन भागों में बटा हुआ है (1) सुतपिटक इसमें बुद्व के उपदेश प्राय उन्ही के मुख से कहे हुए है। (2) विनयपिटक इसमें बौद्व संघ के लिए नियम है। (3) सिद्वान्तों के ऊपर विचार और साष्टार्थ है।

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