भारतीय और अंतर्राष्ट्रीय शोधकर्ताओं की एक टीम ने पाया है कि हवा में विद्यमान वाष्प और सूक्ष्म ठोस कणों अर्थात एयरोसोल, धूल और बादल भवनों की छतों पर स्थापित फोटोवोल्टिक (फोटोवोल्टिक एंड रूफ टॉप इंस्टालेशंस) सौर ऊर्जा उपकरणों (फोटोवोल्टिक एंड रूफ टॉप सोलर इनर्जी इंस्टालेशंस) से मिलने वाली सौर ऊर्जा के उत्पादन को कम करते हैं जिसके परिणामस्वरूप अच्छी-खासी वित्तीय हानि होती है। उन्होंने अनुमान लगाया है कि फोटोवोल्टिक और छतों पर स्थापित उपकरणों (रूफटॉप इंस्टॉलेशन) पर कुल एरोसोल प्रकाशिक (ऑप्टिकल) गहराई का प्रभाव 15 लाख 50 हजार रुपये तक की वार्षिक वित्तीय हानि है। धूल और बादलों के कारण इससे संबंधित वित्तीय नुकसान क्रमशः 05 लाख 60 हजार रूपये और 24 लाख 70 हजार रुपये है। यह अनुमान भारतीय सौर ऊर्जा उत्पादकों और बिजली प्रबंधन संस्थाओं को पारेषण और वितरण प्रणाली के कुशल संचालन और ग्रिड स्थिरता में अनुकूलन के लिए मदद कर सकता है।
हाल के वर्षों में भारत जैसे विकासशील देशों में सौर ऊर्जा उत्पादन का व्यापक रूप से उपयोग किया जा रहा है, और जहां पर्याप्त सौर संसाधन हैं। फोटोवोल्टिक (पीवी) और केन्द्रीयकृत सौर ऊर्जा (सीएसपी) संयंत्र प्रतिष्ठानों में हालांकि, बादल और एयरोसोल द्वारा सौर विकीर्ण को सीमित कर दी जाने के कारण इनके कार्य निष्पादन और क्षमता पर प्रभाव पड़ता है। सौर प्रणाली को बड़े पैमाने पर विकसित करने के लिए उचित योजना के साथ ही सौर क्षमता का अनुमान लगाने की आवश्यकता भी होती है।
भारत सरकार के विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग (डीएसटी) के एक स्वायत्त अनुसंधान संस्थान, आर्यभट्ट प्रेक्षण विज्ञान शोध संस्थान (आर्यभट्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट ऑफ ऑब्जर्वेशनल साइंसेज-एआरआईईएस), नैनीताल, भारत के शोधकर्ताओं तथा एथेंस की राष्ट्रीय वेधशाला (एनओए), ग्रीस ने विश्लेषण और मॉडल सिमुलेशन के साथ मध्य हिमालयी क्षेत्र में एक उच्च ऊंचाई वाले दूरस्थ स्थान पर सौर ऊर्जा क्षमता पर एरोसोल और बादलों के प्रभाव का अध्ययन किया।
रिमोट सेंसिंग जर्नल में प्रकाशित अध्ययन से पता चलता है कि वार्षिक आधार पर, क्षैतिज सतह या वैश्विक क्षैतिज विकिरण (जीएचआई) पर कुल सौर विकिरण घटना के लिए कुल एरोसोल क्षीणन (एटेनचुएशन) क्रमशः 105 के डब्ल्यूएच एम-2 (kWhm-2) और 266 के डब्ल्यूएच एम-2 (kWhm-2) था। सूर्य या बीम क्षैतिज विकिरण (बीएचआई) से प्राप्त प्रत्यक्ष सौर विकिरण; क्रमश जीएचआई और बीचआई क्रमशः 245 के डब्ल्यूएच एम-2 (kWh m-2) और 271 (kWh m-2) के क्षीणन के साथ संबंधित बादल (क्लाउड) के प्रभाव बहुत अधिक मजबूत होते हैं। वैज्ञानिकों ने ऊर्जा में इस नुकसान के कारण होने वाले वार्षिक वित्तीय नुकसान की भी गणना की है।
एआईआरआईईएस नैनीताल, भारत के वैज्ञानिक डॉ. उमेश चंद्र दुमका के साथ-साथ नेतृत्व में एनओए, ग्रीस के वैज्ञानिक प्रो. पानागियोटिस जी कोस्मोपोलोस, भारतीय खगोल भौतिकी संस्थान (आईआईए), बंगलुरु, भारत के वैज्ञानिक डॉ. शांतिकुमार एस. निंगोमबम और भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) रूडकी, भारत के शोध संकाय की आकृति मासूम की सहायता से किए गए इस शोध से इस क्षेत्र में सौर ऊर्जा उत्पादन पर एरोसोल और बादलों के प्रभाव की व्यापक जांच आंकड़े मिल रहे हैं। इसके अलावा, यह अध्ययन मध्य हिमालयी क्षेत्र में काल्पनिक रूप से स्थापित किए जाने वाले एक 01 मेगावाट की नाममात्र शक्ति वाले पीवी (फोटोवोल्टिक) और केंद्रित सौर ऊर्जा (सीएसपी) प्रणाली के एक काल्पनिक परिदृश्य का अनुकरण करके वित्तीय हानि के विश्लेषण का भी प्रयास करता है।
वैज्ञानिक अब सौर ऊर्जा उत्पादन के स्तरों और उसके वितरण को भारत भर में चुनी हुई स्थानीय प्रशासनिक इकाइयों में होने वाली खपत के साथ जोड़ने और विकेन्द्रीकृत ऊर्जा इको सिस्टम के लिए सौर पूर्वानुमान और ऊर्जा के प्रचलित सिद्धांतों के अनुसार एरोसोल और क्लाउड प्रभावों को मापने की योजना बना रहे हैं।
चित्र 1: क्षेत्र में 01 मेगावाट की नाममात्र शक्ति के साथ सीएसपी (ए) और पीवी (बी) प्रतिष्ठानों से उत्पादित सौर ऊर्जा पर एरोसोल, धूल और क्लाउड प्रभावों का वित्तीय विश्लेषण। प्रभाव की मात्रा का निर्धारण मासिक औसत और कुल ऊर्जा हानि, वित्तीय हानि और सौर ऊर्जा की क्षमता के अनुसार किया गया था
प्रकाशन लिंक:
https://www.mdpi.com/2072-4292/13/16/3248 ,
https://doi.org/10.1016/j.scitotenv.2020.139354
अधिक जानकारी के लिए संपर्क करें डॉ उमेश चंद्र दुमका (dumka@aries.res.in) और डॉ शांतिकुमार एस निंगोमबम (ईमेल: shanti@iiap.res.in)
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एमजी/एएम/एसटी/एसएस
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